Wednesday 13 January 2021

एक पत्रकार की स्मृतियों और अनुभवों का कोलाज: हुसैन ताबिश

"वह आपसे लिपटना चाहती है। वह आपको चूमना चाहती है। आप उसके कोमल और नर्म हाथों की गर्माहट महसूस करते हैं। कल-कल करती हुई वह बात-बेबात पर हंसती रहती है। और जब आप उससे नाराज होने का अभिनय करते हैं, वह और हंसती चली जाती है। उसकी सांसों की उष्णता आपमें गुदगुदी भरती है। उसकी आंखें की कोर में जाड़े का उजास है और गर्मी की शाम की सुरमई चमक एक साथ डोलती है।’’

 यह वर्णन किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के लिए नहीं बल्कि एक लेखक ने फ्रांस के पेरिस शहर में बहने वाली सेन नदी के लिए किया है। लंदन में बहने वाली टेम्स नदी के सम्मान में मनाए जाने वाले सालाना "टेम्स फेस्टिवल" और भारत में नदियों की दुर्दशा पर लेखक कहता है, "हमने अपनी नदियों को देवी-देवता मानकर पूज्य बना दिया लेकिन उससे प्यार करना नहीं सीखा!’’

पिछले दो माह का मेरा वक्त कुछ नई-पुरानी किताबें पढ़ने और सामाजिक शोध के काम में गुजरा है। पढ़ी गई किताबों में एक किताब है ’’बेखुदी में खोया शहर’’। इसके लेखक हैं बीबीसी के पूर्व पत्रकार अरविंद दास और इसे प्रकाशित किया है दिल्ली के अनुज्ञा बुक्स प्रकाशक ने। 195 पृष्ठों की यह किताब कुल पांच खंडों में विभाजित है और इसमें कुल 60 लेख हैं। हालांकि उन्हें लेख कह देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि ये लेख किसी एक सांचे या लेखन की विद्या में फिट नहीं बैठेंगे। आपने कविता की मुक्त शैली पढ़ी और देखी होगी लेकिन इस किताब में आप पूरे लेखन की एक मुक्त शैली से रूबरू होंगे। लेखक ने स्वयं इस संग्रह को " एक पत्रकार के नोट्स’’ कहा है। मैं इस नोट्स में लेख, डायरी, संस्मरण और यात्रा वृतांत भी शामिल करूंगा! किताब की भाषा शैली बिल्कुल साहित्यिक है जिसकी प्रमाणिकता इस पुस्तक के शीर्षक और ऊपर दिए पुस्तक के अंश से साबित होती है। कथ्य की सरलता, सहजता, भाव और शैली पाठक को बरबस ही अपने मोहपाश में बांध लेती है। कोई भी लेख दो पेज से ज्यादा का नहीं है। लेखन सारगर्भित और विषय समीचीन है। इसलिए पाठक एक के बाद एक लेख पढ़ता जाता है। यही इस पुस्तक और लेखक की सफलता है। इसमें शामिल लेखों के विषय की विविधता और उसका दायरा भी इस किताब को खास बनाती है।

 

जहां एक ओर लेखक पाठकों को अपनी बचपन की स्मृतियों में ले जाकर बिहार के मधुबनी के गांवों के आम की बाड़ियों में टिकोले चुनवाता है, वहीं यूरोप के किसी काॅफी हाउस की काॅफी का रास्वादन भी करा देता है। यहां प्रेमी जोड़े और प्रेम भी हैं लेकिन उसका रूप वह नहीं है जो कहानियों और उपन्यासों में होता है। प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है। उसमें रोमांस का पुट नहीं है।

इस किताब को पढ़ते हुए पाठक भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, पुणे और श्रीनगर जैसे शहरों से लेकर जर्मनी, फ्रांस, चीन, श्रीलंका और आॅस्ट्रिया जैसे देशों की राजधानियों और उनके शहरों की कला, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास बोध और वहां के लोगों से एक राब्ता कायम कर लेता हैं। लेखक ने लंदन, वियना, पेरिस, शंघाई और कोलंबों जैसे ढेर सारे शहरों की तरुणाई भरी भोर, अलसाई दोपहर और सुरमई अलमस्त शामों के साथ वहां की नदियों, पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया है। संघाई का समाजवाद और मार्क्स के दर्शन की मौत जैसे लेखों में लेखक ने उन देशों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं को भी टटोलने की कोशिश की है।

 किताब के दूसरे हिस्से में लेखक भारत में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की आमद के बाद राष्ट्रभाषा हिंदी, राष्ट्रवाद, पत्रकारिता, न्यूज चैनल्स, रेडियो और सिनेमा में आए बदलावों की पड़ताल करता है। न्यूज़ रूम राष्ट्रवाद से लेखक काफी खौफजदा है वहीं "गलोबल से लोकल होता बाॅलीवुड’’ लेख में हाल के दिनों में गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ’आंखों देखी’, ’मसान’, ’दम लगा के हईशा’, ’बरेली की बर्फी’, और अनारकली ऑफ आराजैसी फिल्मों में चुटीली कहानियों के जरिए छोटे-शहरों, कस्बों की जिंदगी, परिवार, नाते-रिश्तेदारी और अस्मिता को उकेरने को लेखक उम्मीद भरी निगाहों से देखता है। लेकिन चिंता इस बात की है कि अगर इन फिल्मों की पहुंच एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं हुई तो अपने उद्देश्यों में यह समांतर सिनेमा की तरह ही पिछड़ सकती है। लेखक हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के क्षेत्रीय फिल्मों का भी जिक्र करता है जिनमें असीम संभावनाओं के द्वार हैं।

 

किताब का तीसरा हिस्सा पूरी तरह लोक कला, संस्कृति और भाषा को सपर्पित है। इसमें लेखक ने मिथलांचल के सांप्रदायिक सद्भाव, मैथिली भाषा-साहित्य, मिथिला पेंटिंग, भित्तचित्र, कोहबर, सिक्की कला जैसे अनेक लोक कलाओं और उनसे जुड़े कलाकारों से रूबरू कराया है। लेखक ने यहां दम तोड़ती लोक संस्कृति, कलाओं और गाथाओं को लेकर कई गंभीर सवाल भी उठाए हैं। बिहार के सौ साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई जिसमें बिहार के विभिन्न कला रूपों की झांकी थी। प्रर्शनी में जहां मिथिला पेंटिंग के कई स्टाॅल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था।

मिथिला में शादी-ब्याह के अवसर और लड़कियों के गौना के समय सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है, जो आज भी कायम है। हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रूचि इस देश के बाहर विदेश के लोगों की है उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं है। स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है। मैथिली भाषा को लेकर एक स्थान पर लेखक ने कहा है, "वर्ष 2004 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी यह सवाल उसी रूप में मौजूद है कि मैथिली भाषा-साहित्य में ब्राहमणों और कर्ण कायस्थों की उपस्थिति ही सभी जगह क्यों है जबकि पूरे मिथिला भूभाग में यह बोली और समझी जाती रही है।’’

पुस्तक के चैथे और पांचवे हिस्से में गांव, गरीबी, पीड़ा, बचपन, प्रेम, जवानी, संघर्ष, मृत्यु शोक और विद्रोह के स्वर हैं। इससे हिस्से को लेखक ने उम्मीद-ए- शहर और स्मृतियों का कोलाज नाम दिया है। चंपारण सत्याग्रह के कलमाकरलेख में लेखक ने लिखा है, ’’ मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी, जो खुद एक पत्रकार भी थे, ने चंपारण सत्याग्रह के कलमकार, पत्रकार सत्याग्रही पीर मुहम्मद मूनिस का नाम उल्लेख करना कैसे चूक गए। मूनिस चंपारण के एक युवा पत्रकार थे। गांधी जी को चंपारण आने का निमंत्रण और वहां के हालात से उन्होंने ही चिट्ठी लिखकर गांधी जी को अवगत कराया था। मुनिस उन दिनों कानपुर से निकलने वाले ’’ प्रताप’’ ( संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ) के संवाददाता थे। किताब में लेखक अरविंद दास लिखते हैं कि इस पत्रकार का नाम न तो गांधी जी की आत्मकथा में मिलता है न ही आधुनिक भारत के किसी इतिहास में। यहां तक बिहार की पत्रकारिता के इतिहास में भी उनको स्थान नहीं दिया गया। इस तरह की कई रोचक जानकारियां इस किताब में दर्ज हैं।

अगर आप छोटे-छोटे लेखों से ढेर सारे बड़े-बड़े मुद्दों को समझना, पढ़ना और देखना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए ही लिखी गई है। मात्र 250 रुपये की यह किताब अमेजन पर उपलब्ध है।

(हुसैन ताबिश युवा पत्रकार और अध्येता हैं)

 

Friday 4 September 2020

एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी


अरविंद जी, नमस्कार.


माफ़ कीजिएगा, समय नहीं निकाल पाया। वैसे पुस्तक तो ख़रीदने के बाद तुरंत ही पढ़ लिया था। पर कुछ लिखने के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था। वैसे इस पुस्तक पर बातें होती रहेगी क्योंकि इसमें बात करने लायक़ काफ़ी 'समिधा' है। 

मैं ऑस्कर वाइल्ड का एक उद्धरण का सहारा लूँगा कि ‘पुस्तकें अच्छी या बुरी नहीं होती हैं। वे या तो अच्छी लिखी होती हैं या बुरी लिखी होती हैं।’  आपकी पुस्तक ‘बेख़ुदी में खोया शहर’ बिलकुल ऑस्कर वाइल्ड की इस उक्ति पर खड़ी उतरती है। निश्चित रूप से आपकी पुस्तक बहुत ही अच्छी लिखी गई पुस्तक की श्रेणी में आता है।

इस पुस्तक में अपने लेखन से आप एक ऐसे संवेदनशील लेखक के रूप में सामने आते हैं जो अपने आसपास बहुत ही बारीकी नज़र रखता है। आपने लेखन की अपनी शैली विकसित की है और यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मैं कोई पुस्तक उठाऊँ बिना यह जाने कि इसे किसने लिखी है, और मेरे मुँह से यह निकल जाए कि लेखन शैली से यह तो अरविंद जी की  पुस्तक लगती है, तो मुझे लगता है यह बड़ी बात है। दूसरों की तो बात नहीं, पर मेरे लिए यह सच है कि मैं एक विशिष्ट शैली इसमें देख रहा हूँ। 

किसी लेखक की लेखकीय प्रतिभा का बहुआयामी होना शायद उसको कालातीत बनाता है। मुझे आपमें बहुत आयाम दिख रहे हैं। ज़ाहिर है कि आपका पत्रकारीय प्रशिक्षण और दृष्टि आपके लेखन को एक बड़ा canvas देने में मदद कर रहा है। पर इस तरह का प्रशिक्षण होने के बाद भी हर व्यक्ति इस तरह से लिख ले यह भी ज़रूरी नहीं है। इसलिए व्यक्तिगत प्रतिभा की भूमिका को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। 

पुस्तक में कई जगह, जिसे हम sweeping statement कहते हैं, मुझे देखने को मिला। एक शोधकर्ता शायद ऐसा कभी न करे पर पत्रकार के रूप में हम और आप सब इस तरह की स्वतंत्रता लेते रहते हैं। और अरविंद जी, आपको यह दोनों ही लाभ मिल रहा है! 

वैसे अपनी पुस्तक में आपने एक जगह ज़िक्र तो किया है, आपके साथ मैं भी, आपके अन्य शुभचिंतकों की तरह, आपके उपन्यास/कहानी की बाट  जोहेंगे। 

मेरी प्रशंसा का बुरा नहीं मानिएगा। पर मैं यह पूरी ईमानदारी से कर रहा हूँ। सिर्फ़ प्रशंसा करने के लिए प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ।  

हम ज़्यादा मिलें, ये मेरी इच्छा है। 

अनेकानेक शुभेच्छा के साथ 

अशोक

Thursday 12 September 2019

भाई ये किताब जल्दी पढ़ो

यह किताब एक पत्रकार के नोट्स से बनी है.  जिसमें बहुत सारे किस्से हैं. और कहीं ना कहीं यह पता चल जाता है कि लेखक को अपने कॉलेजों में से एक जेएनयू से कितना प्यार है. और होना भी चाहिए. लेखक जहां जहां गया वहां वहां उसने कुछ लिखा है.

आपको भी यह किताब नॉस्टैलजिया से भर देगी. और मंद मुस्कान आपको ज्यादातर किस्सों में देगी, बाकी में आपको सोचने को मजबूर कर देगी.

व्यक्तिगत तौर पर कहूँ, मतलब मेरी राय तो है भाई जल्दी पढ़ो. बहुत मजा आ रहा है. छोटी छोटी चीज है जो हम और किताबों में शायद मिस करते हैं, यहां मिल रही है. दुकानों के किस्से हैं. मूवीज के किस्से हैं. और हां, सबसे जरूरी बीच बीच में कविताएँ. (साभार इंस्टाग्राम)

Monday 4 February 2019

बेखुदी में खोया शहर

लोकार्पण की तस्वीर
मोहन जोशी: लेखक-पत्रकार अरविंद दास की अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित पुस्तक बेख़ुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स का मशहूर पत्रकार करण थापर ने आईआईसीदिल्ली में विमोचन किया.

इस कार्यक्रम में वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार और राजस्थान पत्रिका के सलाहकार संपादक ओम थानवी भी शामिल थे. कार्यक्रम का संचालन हिंदी के लेखक प्रभात रंजन ने किया.

तलवार ने कहा कि मीडिया के डॉमिनेंट डिसकोर्स में जिसकी बात नहीं की जाती है इस किताब में उस पर बात की गई है। उन्होंने लेखक की दलितों-पिछड़ोंसबाल्टर्न के प्रति संवेदनशील दृष्टि की बात की। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता के संदर्भ में जब बात होती है तब अक्सर राष्ट्रीय आंदोलन के दौर की पत्रकारिता की चर्चा होती है ,जब एक लक्ष्य और उदेश्य को लेकर देश में पत्रकारिता की जाती थी. आजकल अधिकतर टीवी चैनल और अखबार घुटने टेक चुके हैं और बहुत कम हैं जो अभी भी प्रतिरोध में खड़े हैं। लेकिन इन नकारात्मकता के बीच जो सकारात्मक पक्ष भी उभर रहा हैउस पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे ही सकारात्मकता अरविंद दास की पत्रकारिता में दिखाई देती है। यहाँ पत्रकारिता और साहित्य का अदभुत संगम है.

तलवार ने कहा कि हिंदी में शेखर जोशी ने मर्म को छूने वाली कहानियाँ लिखी हैं. पर कहानी के अंत में ऐसी जगह दृष्टि जाती है जिसकी कल्पना पहले पाठक ने नहीं की थी. वह पाठकों के दिल को छूती है. इस किताब में शामिल लेख उसी परंपरा में जुड़ते हैं.

किताब के लेखों से उदाहरण देते हुए उन्होंने शंघाई की यात्रा का हवाला देते हुए कहा कि लेखक महानगर की चर्चा तो करता ही है पर उसकी दृष्टि शंघाई से दूर गाँवों और कृषक समाज पर भी गई है. इसी तरह मिथिला पेंटिंग में आई आधुनिताजिसमें भ्रूण हत्या से लेकर गुजरात के दंगों का चित्रण हैकी इस किताब में चर्चा है. तलवार ने कहा कि पूरी दुनिया में मिथिला पेंटिंग की प्रदर्शनियाँ लगती है पर दरभंगा-मधुबनी जिले में एक भी कलादीर्घा नहीं है लेखक की नजर इस बात पर गई है.

अपने वक्तव्य में तलवार ने स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी और आइडिया ऑफ इंडिया’ के पैरोकार पीर मुहम्मद मूनिस का जिक्र किया. उन्होंन कहा कि लेखक इस बात का ठीक ही उल्लेख करता है कि महात्मा गाँधी मूनिस का जिक्र करने से चूक गएपर वे मूनिस के यहाँ आते-जाते थे और खाना खाते थे. तलवार ने खास तौर से जेएनयू के ऊपर एक लेख का जिक्र करते हुए कहा कि इतना अच्छा लेख उन्होंने कहीं नहीं पढ़ा. इस लेख में जेएनयू के इतिहासचरित्रवातावरणउपलब्धियों और वर्तमान संकट का यथार्थपरक तस्वीर खींची गई है. उन्होंने एक लेख के हवाले से मैथिली भाषा में ब्राह्मणों के वर्चस्व और दलितों-शूद्रों की अनुपस्थिति का उल्लेख किया. तलवार ने कहा कि मैथिली भाषा का आंदोलन ब्राह्मणओं के नेतृत्व में ब्राह्मणों का आंदोलन रहा है और इसलिए सफल नहीं हो सका. 

 कार्यक्रम में ओम थानवी ने कहा कि उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में पत्रकारिता पर बाहर से तो बहुत अंगुलियां उठ रही हैंलेकिन जब पत्रकारिता के भीतर से ही सवाल उठते हैं तो वह महत्वपूर्ण होता है। यह काम इस किताब में किया है। अरविंद के पास साहित्यकार की भाषा और संवेदनशीलता है। शोधार्थी होने के बावजूद शोध का बोझ नहीं है। किताब साहित्य के करीब हैभाषा आनंद देती है। 
उन्होंने कहा कि अरविंद की यात्रा में ज्ञान नहीं हैअनुभव है और स्पंदन है। 

कार्यक्रम का संलाचन करते हुए प्रभात रंजन ने संकलित लेखों में साहित्यिकता पर जोर दिया। उन्होंने संस्मरणों में मौजूद लालित्य को रेखांकित किया.
 .
(हंस, फरवरी 2019 में संपादित अंश प्रकाशित)